ऋतु बसंत, माधवी गंध है,
कैसी मादक मधु-सुगंध है ?
और, मनोभव हुआ अंध हैं,
भव में बसा विकार........॥
अंग स्वयं को ऐंठ रहे हैं,
भाव, हृदय में पैठ रहे हैं,
मन ने विरह वियोग सहे हैं,
हुआ न क्यों उपकार........॥
मां सरस्वती की सेवा में रत साधक का एक सद्प्रयास
ऋतु बसंत, माधवी गंध है,
कैसी मादक मधु-सुगंध है ?
और, मनोभव हुआ अंध हैं,
भव में बसा विकार........॥
अंग स्वयं को ऐंठ रहे हैं,
भाव, हृदय में पैठ रहे हैं,
मन ने विरह वियोग सहे हैं,
हुआ न क्यों उपकार........॥
बज रहे हैं वीणा के तार....
मधुर हृदय हो मौन सुन रहा,
सरस मधुर झंकार।
युगल नयन किंचित अलसाये,
लगते दिन कुछ-कुछ गदराये,
बदरा नील गगन में छाये,
पड़ने लगीं फुहार........॥
साधना तो सफल होती है, सफल होती रहेगी,
प्यार की सरिता हृदय में प्यार भर, बहती रहेगी।
प्यार का अवलम्ब पाने, प्यार, फिरती मोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
बुधतनय ! दासी चरणरज
चूम करके धन्य होगी,
रूप, बल की और कोई
साधना क्या अन्य होगी।
है नहीं देखा, तुम्हें प्रिय-
प्यार पथ में टोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
मैं स्वयं सरिता, मगर है प्यास,
नित बेचैन करती,
स्वाति की ही बूंद चातक की,
तृषा है नित्य हरती।
नित तुम्हारे मिलन के ही,
स्वप्न में पथ जोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
रूप की प्यासी, युगल
आँखें तुम्हें ये, ढूँढ़ती हैं,
प्यार के संबल तुम्हें इस,
भवधरा पर खोजती हैं।
हृदय मन्दिर में बिठा कर,
साधना को पूजती हूँ॥
रूप उपवन के सबल............॥
रूप उपवन के सबल माली कहाँ ?
मैं खोजती हूँ.........
देव ऋषि नारद बखाना रूप,
मैं उन्मत हुई सी,लोभ
कर पाई नहीं संवरण,
छाई बेवसी सी।
त्याग सब कुछ,
आज अपना, पन,
विभव में खोजती हूँ॥
सुनने लगा ध्यान से फिर वह,
सोमगान से गीत मधुर,
सुनने लगा प्रकृति नारी के,
छमछम ध्वनि करते नूपुर।
कोकिल कंठी मीठी तानों में,
खोता सा जाता था,
अपने को असहाय निरूत्तर,
ठगा-ठगा सा पाता था॥
खोज रही वरमाला थामे
युगलकरों में, प्रियतम को,
खोज रही थी विश्व विजन में,
दुबके रत्न मधुरतम को।
चपल दृष्टि जिस ओर उठ गई,
उधर मच गया सा हड़कम्प,
काम स्वयं, भूतल पर आया,
कौतुक देखा, हुआ विकम्प॥
छलना स्वयं, रूपिका चंचल,
द्रुतिगति कभी, कभी अति मंद,
भरती अति उल्लास हृदय
में विचरण करती थी सानन्द।
स्वयं 'गिरा' ही अमित मधुंरमय,
वीणा के मृदु तारों को,
छेड़ रही ज्यों, विश्व सुन रहा,
तन्मय, मृदु झंकारों को॥
नयनों से, चंचला व्योम से ज्यों,
अति तीव्र गिराती सी,कामकला थी
स्वयं दृष्टिगत, जग से, होती आती सी।
यह मृदु मधुर, मृदुल भूतल को,
दिव्य पिलाती चषक युगल,
प्रकृति सुन्दरी छवि अद्भुत नव,
स्वयं दिखाती सी, पल पल॥