मां सरस्वती की सेवा में रत साधक का एक सद्प्रयास
मैं स्वयं सरिता, मगर है प्यास,
नित बेचैन करती,
स्वाति की ही बूंद चातक की,
तृषा है नित्य हरती।
नित तुम्हारे मिलन के ही,
स्वप्न में पथ जोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
सागर में रह कर मछली, प्यासी रह जाती है।अधजल गगरी पनिहारिन पर, जल छलकाती है।चमत्कार हैं इतने, मानव समझ नही पाता।भेद उसी के दिल मे होगें, जो है एक विधाता।
Post a Comment
1 comment:
सागर में रह कर मछली, प्यासी रह जाती है।
अधजल गगरी पनिहारिन पर, जल छलकाती है।
चमत्कार हैं इतने, मानव समझ नही पाता।
भेद उसी के दिल मे होगें, जो है एक विधाता।
Post a Comment