Thursday, February 12, 2009

मैं स्वयं सरिता, मगर है प्यास,


मैं स्वयं सरिता, मगर है प्यास,

नित बेचैन करती,

स्वाति की ही बूंद चातक की,

तृषा है नित्य हरती।

नित तुम्हारे मिलन के ही,

स्वप्न में पथ जोहती हूँ।

रूप उपवन के सबल............॥

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सागर में रह कर मछली, प्यासी रह जाती है।
अधजल गगरी पनिहारिन पर, जल छलकाती है।
चमत्कार हैं इतने, मानव समझ नही पाता।
भेद उसी के दिल मे होगें, जो है एक विधाता।