Tuesday, December 16, 2008

जिसको थोड़ा पहचाना है।


तुम मंदिर के द्वार खोल दो,

मैं बढ़कर आरती उतारूं,

तुम थोड़े से स्वर निखार दो,

मैं गीतों का पंथ बुहारूं।

रोम रोम में रम

जायेगा एक जो अनजाना है,

आँखों ने अन्तर प्रवेश

कर जिसको थोड़ा पहचाना है।

मृदुभावों के मधुर सलिल से,

उस महान के पैर पखारूं.....

तुम मंदिर के द्वार......॥१॥

उस अदृश्य की छवि का दर्शन

यदि इस जग को भी हो जाये,

कितना सुख धरती पर उपजे,

नव आलोक उतर कर आये।

कण कण में होती जगती के

अद्भुत सिहरन एक निहारूं.....

तुम मंदिर के द्वार......॥२॥

1 comment:

Truth Eternal said...

adbhut rachnayen hai....
hriday ko chhooti hui si