कंकणस्वर्ण खनकते पलपल,
वातावरण गूंजता सा,
मन मन्दिर में रूप पुजारी,
बैठा रूप पूजता सा।
हाथों में पुष्पाद्द्रजलि मधुरिम,
अर्ध्यथाल आरती लिये,
मानो उतर रही थी भू पर
'माया', नव श्रृंगार किये॥
मां सरस्वती की सेवा में रत साधक का एक सद्प्रयास
कंकणस्वर्ण खनकते पलपल,
वातावरण गूंजता सा,
मन मन्दिर में रूप पुजारी,
बैठा रूप पूजता सा।
हाथों में पुष्पाद्द्रजलि मधुरिम,
अर्ध्यथाल आरती लिये,
मानो उतर रही थी भू पर
'माया', नव श्रृंगार किये॥
शोडष कला निखर आईंसी,
उभरी उभरी, सीने पर,
हो जाते उन्मत्त मधुप थे,
मधु कलियों का पीने पर।
सुराकलश पर धरे चषक थे,
पीने वाले डरते से,
मात्रा नयन द्वारो से उर की
प्यास, ठगे से, भरते से॥
तिमिरघटा सी घिर लहरातीं, अलकें युगल नितम्बों पर,
कदली जंघाओं पर यौवन वपु, ज्यों पुष्ट स्तम्भों पर।
शंखग्रीवा युगल स्कन्धों पर गौरव ज्यों उठी हुई,
वेणी कृष्ण सर्पिणी मानो, अरिसन्मुख हो डटी हुई॥
भालप्रभा विद्युत ज्यों नभ में, इत उत कीड़ा करती सी,
नीलांगन में तारावलियों के, मन मधु से भरती सी।
कुम्भस्तनी युगल पट कंचुकि, किंचित बंधन ढिला-ढिला,
यौवन, पूर्ण इन्दु मुख दिखता, पंकज सर में खिलाखिला॥
शुक नासिका सुरम्य, दिव्य मुक्तामय सुन्दर,
चिबुक, कपोलों पर, तिल, कृष्ण, कान्ति अतिमनहर।
कदली जंघा युगल, स्तंभों सी, दिपतीं सी,
मानो शोभा स्वयं, धरापर थी, उतरी सी॥
धवल कान्ति सी, सबल क्रान्ति सी, विपुल भ्राँति सी मनोरमा,
नवल शान्ति सी शशि ज्योत्स्निा, उपमामयी स्वयं उपमा।
कर्पूरी सुगंध सौरभमय, स्वर्गलोक में सरसाती,
कौन अरी अनजान ? विपिन निर्जन में फिरती इठलाती॥
इन्द्रिजीत है कौन, ढूंढ़ती स्वर्ग धरा पर,
दिव्य दृष्टि संतृषित, घूमती वसुन्धरा पर।
युगल, सुमेरुउरोज दिव्य, उठते, गिरते से,
श्वासों के संघर्षमध्य नभ से घिरते से॥
केसर लिप्त पयोधर, सौरभ मृदु सुगंधमय,
किसको ढूंढ़ रहे धरती पर, होकर तन्मय ?
उदर त्रिावलिसरिता सी, शोभन, अद्भुत, अनुपम,
देतीं प्रणय निमत्राण किसको अहां मधुरतम ?
मन मतङ्ग सा झूम-झूम कर, किसे ढूँढ़ता ?
किस उलझन में फँसी हृदय की निरी मूढ़ता।
प्रतिबिम्बित रत्नों में, होते अधर, विकम्पित,
मुक्ता शुभ्र दशनरद, शोभित अतिशय अद्भुत।
दीर्घ, नितम्बस्पर्शी, अलकावलि अति अनुपम,
अवर्णनीय आभा थी, अति ही मधुर, मधुरतम॥
झील सदृष्य नयन नीले, नभवर्णी, मनहर,
होठों की छवि देख, उषा होती छूमंतर।
अर्धचन्द्र युग भ्रू कटाक्ष से, आहत करती,
देतीं त्रास सुरों असुरों को, इत, उत फिरती॥
परम् प्रफुल्लित, रूपराशि, रूपसि छाया सी,
विचरण करती स्वर्ग बीच, कंचन काया सी।
शोभित स्वर्ग नित्य था, पाकर ऐसी निधि को,
स्वयं प्रकाशित, रति रजनी विधु ज्यों जलनिधि को॥
युगल, भव्य भ्रूचाप सघन, श्ुाचि इन्द्रधनुष से-
दिपते व्योम बदन मस्तक पर कठिन कुलिश से।
श्यामघटा ज्यों केशराशि, विधुमुख मण्डल पर,
शोभित थीं मणिमाल भव्य अति, वक्षस्थल पर॥
इस आतंकवाद ने सबको दुखी बनाया है।
भारत हो चाहे अमरीका इसने ही तो रुलाया है॥
विश्व शांति की राह को क्यों है दुश्मन ने मोड़ा।
इस भारत को ही फिर क्यों खुद्ध क्षेत्र बनाकर छोड़॥
सभी भारतवासी फिर से एक हो जाएं, नींद टूटे।
दुश्मन की किस्मत फिर भारत के हाथों फूटे॥
सावन में चमन, फागुन में सुमन,
हर ऋतु में वतन मेरा महका रहे.....
इसकी झिलमिल करतीं सोने
चांदी की मोती की फसलें,
गद् गद् हो जाये मन मेरा
जब सूर्य चंद्र नभ में निकलें।
टिम टिम करते तारे अनगिन
भर गोद, गगन नित हँसता रहे.....