परम् प्रफुल्लित, रूपराशि, रूपसि छाया सी,
विचरण करती स्वर्ग बीच, कंचन काया सी।
शोभित स्वर्ग नित्य था, पाकर ऐसी निधि को,
स्वयं प्रकाशित, रति रजनी विधु ज्यों जलनिधि को॥
युगल, भव्य भ्रूचाप सघन, श्ुाचि इन्द्रधनुष से-
दिपते व्योम बदन मस्तक पर कठिन कुलिश से।
श्यामघटा ज्यों केशराशि, विधुमुख मण्डल पर,
शोभित थीं मणिमाल भव्य अति, वक्षस्थल पर॥
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