आ गई मैं, प्रियतम ! इस पार....
करो तनिक सन्मुख हो प्यासे,
मन से मधु मनुहार।
मेरी व्यथा कथा कुछ सुन लो,
अगर हो सके तो कुछ गुन लो,
मन के भाव जाल में बुन लो,
मेरी करूण पुकार.............॥
मां सरस्वती की सेवा में रत साधक का एक सद्प्रयास
आ गई मैं, प्रियतम ! इस पार....
करो तनिक सन्मुख हो प्यासे,
मन से मधु मनुहार।
मेरी व्यथा कथा कुछ सुन लो,
अगर हो सके तो कुछ गुन लो,
मन के भाव जाल में बुन लो,
मेरी करूण पुकार.............॥
छम छम करतीं पायल बाजें,
मन में परमानन्द विराजे,
कोयल की मृदु कुहूकुहू में,
नव, मकरन्द बहा,
रे मन ! क्यों है बहक रहा ?
जिस धरती की रज का करते,
तिलक देवता आ आकर।
देवभूमि कहलायी जाती,
पावन परम् दुग्धशाला॥
देव भूमि पर स्वाहा स्वाहा-
यज्ञानल बोला करती।
हाय-हाय की करूण कहानी-
कहने आयी वधशाला॥४॥
थिरक थिरक नूपुर पग, बाजें,
साजें मेघ, गगन, घन गाजें,
परिरम्भित हो भू पर राजेंयह मृदु स्वप्न रहा॥
धिकधिक ताक धिनाधिक, धिनधिन,
होता सा मन में नित नर्तन,सरगम,
सप्त सुरी-अभिनन्दन,करती रहे अहा॥
रे मन ! क्यों है बहक रहा ?
कौन पद्म खिल गया ? सुरभि ले,
इतना महक रहा॥
कलश भरे मद, चषक युगल हों,
हम तुम खोये रस-विह्नल हों,
कैसे मधुर मधुर वे पल हों ?
बहती अनिल अहा॥
सुधा सरोवर में मराल ज्यों,
तैरे निशिदिन, दीपथाल त्यौं,
रहें न किंचित भी उदास यों,
हों उन्मत्त महा॥
वीणे ! वक्षस्थल पर सोजा,
दूखे मन ! किंचित सा रो जा,
आ, तू भी कुछ ऐसा हो जा,
जैसा है संसार.........॥
कहीं मिलेगा आश्रय अपना,
वहीं जगेगा, सोया सपना,
यदि कोई, जो होगा अपना,
कर लेगा मनुहारबज रहे हैं, वीणा के तार॥
ऋतु बसंत, माधवी गंध है,
कैसी मादक मधु-सुगंध है ?
और, मनोभव हुआ अंध हैं,
भव में बसा विकार........॥
अंग स्वयं को ऐंठ रहे हैं,
भाव, हृदय में पैठ रहे हैं,
मन ने विरह वियोग सहे हैं,
हुआ न क्यों उपकार........॥
बज रहे हैं वीणा के तार....
मधुर हृदय हो मौन सुन रहा,
सरस मधुर झंकार।
युगल नयन किंचित अलसाये,
लगते दिन कुछ-कुछ गदराये,
बदरा नील गगन में छाये,
पड़ने लगीं फुहार........॥
साधना तो सफल होती है, सफल होती रहेगी,
प्यार की सरिता हृदय में प्यार भर, बहती रहेगी।
प्यार का अवलम्ब पाने, प्यार, फिरती मोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
बुधतनय ! दासी चरणरज
चूम करके धन्य होगी,
रूप, बल की और कोई
साधना क्या अन्य होगी।
है नहीं देखा, तुम्हें प्रिय-
प्यार पथ में टोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
मैं स्वयं सरिता, मगर है प्यास,
नित बेचैन करती,
स्वाति की ही बूंद चातक की,
तृषा है नित्य हरती।
नित तुम्हारे मिलन के ही,
स्वप्न में पथ जोहती हूँ।
रूप उपवन के सबल............॥
रूप की प्यासी, युगल
आँखें तुम्हें ये, ढूँढ़ती हैं,
प्यार के संबल तुम्हें इस,
भवधरा पर खोजती हैं।
हृदय मन्दिर में बिठा कर,
साधना को पूजती हूँ॥
रूप उपवन के सबल............॥
रूप उपवन के सबल माली कहाँ ?
मैं खोजती हूँ.........
देव ऋषि नारद बखाना रूप,
मैं उन्मत हुई सी,लोभ
कर पाई नहीं संवरण,
छाई बेवसी सी।
त्याग सब कुछ,
आज अपना, पन,
विभव में खोजती हूँ॥
सुनने लगा ध्यान से फिर वह,
सोमगान से गीत मधुर,
सुनने लगा प्रकृति नारी के,
छमछम ध्वनि करते नूपुर।
कोकिल कंठी मीठी तानों में,
खोता सा जाता था,
अपने को असहाय निरूत्तर,
ठगा-ठगा सा पाता था॥
खोज रही वरमाला थामे
युगलकरों में, प्रियतम को,
खोज रही थी विश्व विजन में,
दुबके रत्न मधुरतम को।
चपल दृष्टि जिस ओर उठ गई,
उधर मच गया सा हड़कम्प,
काम स्वयं, भूतल पर आया,
कौतुक देखा, हुआ विकम्प॥
छलना स्वयं, रूपिका चंचल,
द्रुतिगति कभी, कभी अति मंद,
भरती अति उल्लास हृदय
में विचरण करती थी सानन्द।
स्वयं 'गिरा' ही अमित मधुंरमय,
वीणा के मृदु तारों को,
छेड़ रही ज्यों, विश्व सुन रहा,
तन्मय, मृदु झंकारों को॥
नयनों से, चंचला व्योम से ज्यों,
अति तीव्र गिराती सी,कामकला थी
स्वयं दृष्टिगत, जग से, होती आती सी।
यह मृदु मधुर, मृदुल भूतल को,
दिव्य पिलाती चषक युगल,
प्रकृति सुन्दरी छवि अद्भुत नव,
स्वयं दिखाती सी, पल पल॥
कंकणस्वर्ण खनकते पलपल,
वातावरण गूंजता सा,
मन मन्दिर में रूप पुजारी,
बैठा रूप पूजता सा।
हाथों में पुष्पाद्द्रजलि मधुरिम,
अर्ध्यथाल आरती लिये,
मानो उतर रही थी भू पर
'माया', नव श्रृंगार किये॥
शोडष कला निखर आईंसी,
उभरी उभरी, सीने पर,
हो जाते उन्मत्त मधुप थे,
मधु कलियों का पीने पर।
सुराकलश पर धरे चषक थे,
पीने वाले डरते से,
मात्रा नयन द्वारो से उर की
प्यास, ठगे से, भरते से॥
तिमिरघटा सी घिर लहरातीं, अलकें युगल नितम्बों पर,
कदली जंघाओं पर यौवन वपु, ज्यों पुष्ट स्तम्भों पर।
शंखग्रीवा युगल स्कन्धों पर गौरव ज्यों उठी हुई,
वेणी कृष्ण सर्पिणी मानो, अरिसन्मुख हो डटी हुई॥
भालप्रभा विद्युत ज्यों नभ में, इत उत कीड़ा करती सी,
नीलांगन में तारावलियों के, मन मधु से भरती सी।
कुम्भस्तनी युगल पट कंचुकि, किंचित बंधन ढिला-ढिला,
यौवन, पूर्ण इन्दु मुख दिखता, पंकज सर में खिलाखिला॥
शुक नासिका सुरम्य, दिव्य मुक्तामय सुन्दर,
चिबुक, कपोलों पर, तिल, कृष्ण, कान्ति अतिमनहर।
कदली जंघा युगल, स्तंभों सी, दिपतीं सी,
मानो शोभा स्वयं, धरापर थी, उतरी सी॥
धवल कान्ति सी, सबल क्रान्ति सी, विपुल भ्राँति सी मनोरमा,
नवल शान्ति सी शशि ज्योत्स्निा, उपमामयी स्वयं उपमा।
कर्पूरी सुगंध सौरभमय, स्वर्गलोक में सरसाती,
कौन अरी अनजान ? विपिन निर्जन में फिरती इठलाती॥
इन्द्रिजीत है कौन, ढूंढ़ती स्वर्ग धरा पर,
दिव्य दृष्टि संतृषित, घूमती वसुन्धरा पर।
युगल, सुमेरुउरोज दिव्य, उठते, गिरते से,
श्वासों के संघर्षमध्य नभ से घिरते से॥
केसर लिप्त पयोधर, सौरभ मृदु सुगंधमय,
किसको ढूंढ़ रहे धरती पर, होकर तन्मय ?
उदर त्रिावलिसरिता सी, शोभन, अद्भुत, अनुपम,
देतीं प्रणय निमत्राण किसको अहां मधुरतम ?
मन मतङ्ग सा झूम-झूम कर, किसे ढूँढ़ता ?
किस उलझन में फँसी हृदय की निरी मूढ़ता।
प्रतिबिम्बित रत्नों में, होते अधर, विकम्पित,
मुक्ता शुभ्र दशनरद, शोभित अतिशय अद्भुत।
दीर्घ, नितम्बस्पर्शी, अलकावलि अति अनुपम,
अवर्णनीय आभा थी, अति ही मधुर, मधुरतम॥
झील सदृष्य नयन नीले, नभवर्णी, मनहर,
होठों की छवि देख, उषा होती छूमंतर।
अर्धचन्द्र युग भ्रू कटाक्ष से, आहत करती,
देतीं त्रास सुरों असुरों को, इत, उत फिरती॥
परम् प्रफुल्लित, रूपराशि, रूपसि छाया सी,
विचरण करती स्वर्ग बीच, कंचन काया सी।
शोभित स्वर्ग नित्य था, पाकर ऐसी निधि को,
स्वयं प्रकाशित, रति रजनी विधु ज्यों जलनिधि को॥
युगल, भव्य भ्रूचाप सघन, श्ुाचि इन्द्रधनुष से-
दिपते व्योम बदन मस्तक पर कठिन कुलिश से।
श्यामघटा ज्यों केशराशि, विधुमुख मण्डल पर,
शोभित थीं मणिमाल भव्य अति, वक्षस्थल पर॥
इस आतंकवाद ने सबको दुखी बनाया है।
भारत हो चाहे अमरीका इसने ही तो रुलाया है॥
विश्व शांति की राह को क्यों है दुश्मन ने मोड़ा।
इस भारत को ही फिर क्यों खुद्ध क्षेत्र बनाकर छोड़॥
सभी भारतवासी फिर से एक हो जाएं, नींद टूटे।
दुश्मन की किस्मत फिर भारत के हाथों फूटे॥
सावन में चमन, फागुन में सुमन,
हर ऋतु में वतन मेरा महका रहे.....
इसकी झिलमिल करतीं सोने
चांदी की मोती की फसलें,
गद् गद् हो जाये मन मेरा
जब सूर्य चंद्र नभ में निकलें।
टिम टिम करते तारे अनगिन
भर गोद, गगन नित हँसता रहे.....